पूजा रानी सिंह की कविताएं

पूजा रानी सिंह की कविताएं बहुत ही सजीव हैं। ऐसा लगता है कि यह कविताएं बातें कर रही हैं। वक़्त और परिस्थितिओं से, जीवन से सामाजिक सरोकारों से। इनकी कविताओ में ख़ामोशी है, गूंज है और लम्बा इन्तजार भी। पूजा अपनी सशक्त लेखनी के जरिए समाजिक सरोकार से अपने आपको जोड़ने की उत्कंठा रखती हैं जो इनकी कविताओं में भी दिखाई देता है। आप भी पढ़िए पूजा रानी सिंह की कविताएं-
 
१.)  "मेरी चूनर की गाँठ "

मैनें बाँधी है गाँठ,अपनी चूनर के एक कोने में,
एक छोटी सी गाँठ ।
जो मुझे याद दिलाती है मेरे उन दिनों की ,
जब मैं टकटकी लगाए लौ को हिलते देखती थी
वो तेज हवा में झिलमिलाती कभी आग ,
कभी चिंगारी , कभी धीमे से बुझ, ख़ुद ही जल जाती थी ।
मैनें उससे सीखा विपरीत परिस्थितियों में
ख़ुद को संभाले रखना और अंधेरों को रौशन करना ।
मेरी ये गाँठ मेरे उस अकेलेपन की भी साक्षी है ,
जब मैं रात भर हाथ में किताब ले एक छोटे से लैम्प
के नीचे लिखती थी अपनी जीवन की बातें,
कई रातें नन्हे बच्चों की डौरमिटरी में
उन्हे बेफ़िक्री से सोते हुए देखते गुजारीं ।
हर सुबह एक बच्चे के तकिए के नीचे से मिलती
थी एक चॉकलेट और हर बच्चा बड़ी उम्मीद
से झाँकता तकिए के नीचे ,और मिलने पर इतनी ख़ुशी
कि जैसे संसार मिल गया हो ।
उनकी ख़ुशी के साथ ही ख़ुशी बाँटनी सीखी मैनें।
मेरी पौकेट मनी का इससे अच्छा उपयोग मुझे न लगता था ।
मेरी गाँठ ये भी जानती है कि हर कुत्ता ,बिल्ली ,गाय ,
गिरगिट, पक्षी यहाँ तक की कॉलोनी के छोटे बच्चे भी
सब किलकारियाँ मारते, कूदते, फाँदते मेरे इर्द -गिर्द
चक्कर लगाते कभी कुछ खाने के लालच में
तो कभी बस खेलने के लिये ही और मैं भी लीन
आने वाले किसी भी समय से अनजान मस्त थी अपनी दुनिया में ।
इन सबसे मैंने सीखा अपने आज मे जीना और मस्त रहना ।
और ये गाँठ मेरे ज़िद को भी हवा देती है
जो थी कई लोगों को जीवन मे सब कुछ दे पाने की
दिया सबकुछ और वो लोग भी बहुत आगे निकल गए ,
कुछ ने याद रखा ,कुछ भूल गए , पर इन्होंने भी दिया
मुझे बल और आत्मविश्वास,कि ठान लो तो
नामुमकिन कुछ भी नहीं ।
और मेरी ये गाँठ मेरे आज को भी रखेगी याद
क्यूँकि इस गाँठ से सीखा है मैंने हर नए दिन ,
नई चूनर में बँधती है ,कभी साड़ी के पल्लू में
पर नहीं भूलती है अपना काम ,और मेरे सारे पल उसे छूते
या देखते ही हो जाते हैं जीवंत और मैं पलक झपकते ही जी
लेती हूँ वो सब जो आज नहीं पा सकती और हो जाती
हूँ तरोताज़ा एक नए दिन के लिए ।।
 
२.) न उदास हो

न उदास हो
ये पल भी बीत जाएगा
जो कल था तेरा
आज किसी और का
परसों फिर तेरे पास
ही वापस आएगा
वक़्त कभी रुकता नहीं
तो तू क्यूँ रुका हुआ है ?
समय के रथ बैठ
जा पकडं ले वो पल
जो इस वक़्त तेरा है
नहीं तो कोई दूसरा
इसे भी ले जाएगा
ख़ाली हाथ में तो
लकीरें भी फ़क़ीर
की ही लगती हैं
उठ ! कर करम अपना
इन हाथों पर बना कई
गाढ़ी लकीरें
मेहनत की
देखना जिसे तू ढूँढता था
वो ढूँढता हुआ तुझे
ख़ुद तेरे दर पर आएगा
ओर इस तरह पड़ेगा तेरे प्यार में
कि तू लाख भेजना चाहे
फिर ंभी  न वापस जाएगा
जो तेरा है वो बस तेरा होकर रह जाएगा ।।


३.)  " इन्तज़ार "

स्वप्न बुने जितने नैनों ने
पूरे हो न सके वो सपने
ढूँढ रही हैं जिनको अँखियाँ
मिल न सके वो साए अपने
आज घड़ी में रास न आई
कोयल की कुहकें हैं पराई
काश ! कि तुम आओ ऐसे में
फिर आज तुम्हारा इन्तज़ार है ।
पलक झपकती है लगता है
कोई गुज़र गया रास्ते से
तुम ना आए घड़ियाँ बीतीं
शूल चुभे सबके हँसते से
ज्यों देखा मुड़कर बादल को
ऐसा लगा है इक सपना
इन्तज़ार है जिन घड़ियों का
ना आएगा वो अपना
तोड़ इन भ्रम के जंजालों को
आओ आज तुम्हारा इन्तज़ार है।
नई लगे ये फिर से दुनिया
दुनिया के हर लोग नए
मैं अकेली बस ढूँढूँ तुझको
बोझिल रात दिन नैन भए
बरस गए बादल बिन बरखा
धूप ठिठोली खेल रही है
कोई तो रोके इन नैनों को
देखो आज तुम्हारा इन्तज़ार है ।।


४.)  फूल पलाश के    

डलियाँ में चुन फूल पलाश के
बगिया से चली जाऊँगी ,
रोकेगा कितना भी माली
पगडंडी में खो जाऊँगी ।

राह न ताकना मेरी पुष्पों
मैं तेरी वो बहार नहीं,
जाना बिखर सबके आँचल में
मुझसे करना प्यार नहीं ।
जहाँ घनेरी रात मिलेगी
पत्थर पर सो जाऊँगी ।
डलियाँ में चुन फूल पलाश के
बगिया से चली जाऊँगी ,
रोकेगा कितना भी माली
पगडंडी में खो जाऊँगी ।

तुम तो अपनी सोच रहे हो
मेरी विवशता को पहचानो ,
मिलेंगी तुमसे लाखों बहारें
मेरा अकेलापन जानो ,
जब कोई विरह की ज्वाला में होगा
ठंडी बयार बन गाऊँगी ।
डलियाँ में चुन फूल पलाश के
बगिया से चली जाऊँगी ,
रोकेगा कितना भी माली
पगडंडी में खो जाऊँगी ।

रहते हैं सब साथ में मेरे
पर मेरा कोई यार नहीं ,
प्यारी हूँ पूरी बगिया को
मुझको किसी से प्यार नहीं,
दु:ख जितने राहों में मिलेंगे
हर बार मैं चुनने आऊँगी ।
डलियाँ में चुन फूल पलाश के
बगिया से चली जाऊँगी ,
रोकेगा कितना भी माली
पगडंडी में खो जाऊँगी ।

५.) ख़ुशी

आज मेरा धैर्य खो गया है
ह्रदय में असीमित उल्लास है
पर कहीं दूर किसी मन का
विश्वास खो गया है
लगता है विश्व रमणीय है
पर सारा समूह असहनीय है
व्यंग्य बाणों से बींध दिया ह्रदय
अहंकारों का मद खो गया है
समुद्र सा शीतल
भावनाओं का प्रदेश है
पक्षियों का कलरव
एकता का संदेश है
पर कुटिल द्रिष्टी
तथा वाकपटुता की छाया
इन सबको अभिभूत कर देती है
फिर एक क़िस्सा याद आ गया है
शरीर का एक टूटा हुआ हिस्सा
याद आ गया है
इन्हीं भावनाओं मे
ख़ुशी का अन्तरदाह हो गया है ।।


६.)  "ख़ामोशी "

अनन्तकाल बीता वाटिका में
तब लगता था अनंत की तलाश है
पर अब इस जर्जर में
फिर उसी कोलाहल की आस है
कोयल की कोकिल बैन
गूँज बन गई है
आँखें तलाश करती हैं
बीते पल को
जिसमें धैर्य का प्रभुत्व था
उस बीते कल को
समय अन्ततोगत्वा
सामीप्य असम्भव दर्शाता है
एक-एक चेहरे का
आमोद-प्रमोद खो गया है
छिड़ गयी है एक
घनी,अमिट,अप्रासंगिक ,
अनंत , अर्थहीन "ख़ामोशी "


७.)  "अन्तर्मुखी "

जीवन का आक्रोश
विकल करता है
अन्तरमन की ज्वाला
संगठित होती जाती है
कुछ उद्वेलित क्षणों का आवेश
बहा देगा सबकुछ
कुछ संस्मरण, कुछ आस ,कुछ विन्यास ,
मान्यताओं की सीमा अर्जित पल,
किसे प्राथमिक सिद्ध करूँ?
वो अविस्मरणीय भाव विह्वल क्षण
कर्म को लेखित करते है
सदा अटल होने का अभिशाप
शीश पर धर , ध्यान कर
अत्यन्त प्रतीक बन रही हूँ
समय का ह्रास हो रहा है
स्वर का परिहास !
बन गई सुलग कर
"अन्तर्मुखी "

८.)  "क़िस्मत"

विषमता है कितनी ज़्यादा
क्या  खोया  और क्या पाया ?
तोड़ दिए रिश्तों के धागे
आँख खुली तो दिल घबराया ।
घनेरी रातों में मैं अकेली
भटक रही साए  की ख़ातिर ,
जो वो मिला तो नसीब मेरा
बिना मैं साए की थी मुसाफ़िर ।
मेरी विषमता ऐ मेरी दुश्मन
तू मेरी क़ातिल क्यूँ बन रही है ?
भगा के मेरी मंज़िलों को
तू दूर बैठी जो हँस रही है
झूमे चिराग़ को देख कर मन
नज़दीक़ से जो सुलग रही है
ऐ चिन्गारी ! मुझको ख़ाक कर दे
न बचे मंज़र में कोई आशा
ऐ क्यूँ निराशा दूर खड़ी है ?
तेरी कमी है न दे दिलासा
बचपन से जवानी तूने दिया क्या ?
सुलगता दरिया ख़ाली समंन्दर
सुन ऐ बुढ़ापे बाक़ी तू दे जा
बचे न अब कुछ भी दिल के अंदर
बड़े जले हैं जलाने वाले
ये राख बस एक साथ में है
थी मेरी क़िस्मत क़दमों में जिनके ,
वो आज ख़ाली मेरे हाथ में है ।।

९.) मन चल भाग चलें

मन चल दूर कहीं भाग चलें
सपनों की उस नगरी में ,
बन्द पलक से देखी जाए
दुनिया सारी सपनों में ।

आती जाती लहरें बनकर
आँसू समुन्दर लाया है ,
बहती हवा में उड़ता तिनका,
ख़ुशबू तेरी लाया है
तिनका लेकर तैरूँ समुन्दर
डूँबू -निकलूँ सपनों में ।

तूने लिखी है मेरी कहानी
तेरी ज़ुबान से सुनना चाहूँ,
हर पन्ने पर तेरी लिखावट
छूकर उँगली से पढ़ना चाहूँ ,
नयनों को ना खोलूं कभी मैं
तेरे दिल की सुनूँ -पढ़ूँ सपनों में ।

बदरी जो छाई छुप गया सूरज
काश ! बरस सावन जाए,
गरजे मेघा नभ - गन गूँजे
कोयल कूहके मधुर गाए,
जीवन की घड़ियाँ ये प्यारी
जी लूँ मरलूँ सपनों में ।

मन चल दूर कहीं भाग चलें
सपनों की उस नगरी में ,
बन्द पलक से देखी जाए
दुनिया सारी सपनों में ।

१०.) एक बूँद ठंडक

रात बर्फ गिरी बहुत ।
नन्ही हथेली ने गलते ओले उठा लिए,
और जल्दी से मेरे मुँह में डाल दिए ।
बस होंठ पर एक बूँद ठंडक की महसूस हुई ।
अनायास , सर्द हवा चलने लगी ।
गर्म हथेली से गरदन पकड़े मेरी बिटिया ,
मुझ पर झूल सी गई ।
वो सर्द हवा सभी तरह के दर्द ले गई ।
झूमते बादल बरस रे थे एक लय में ,
टप टप  गिरती बूँदों के संग ,
नाच रही थी मेरी परी ।
मयूर बन नाच उठा संग मेरा मन ।
जीवन से मुझे फिर  से प्यार हो गया ।
धन्य हुई मैं, और सफल मेरा जीवन ।
मैं उठी और एक अबोध बालक सी
कूद पड़ी बारिष में ।
छप छप - धप धप -फच फच
खनखनाती काँच के टूटने सी हँसी ।
ताल लय ताप आलाप
कब क्या चल रहा था याद नहीं
पर उस पल सब कुछ मधुर था ।
कल रात बर्फ गिरी बहुत ।
आज की सुबह है बिल्कुल नई ।।