ममता किरण के काव्य पर एक नज़र - संजय शेफर्ड


कविता कब ? कहां ? क्यूं ? और कैसे ? के साथ शुरू होती है और समाप्ति के बाद भी डिट्टो यही सवाल छोड़ जाती है। कुछ कविताओं को पढ़ने, पढ़कर समाप्त कर देने के बाद ऐसा लगता है कि उस कविता की दुबारा शुरुआत हो रही है, एक भाव है जो पुन : जागृत होना चाहता है, एक विचार है जो पनप रहा है, स्थायित्व की कसौटी पर खरा उतरने की चेष्ठा कर रहा है, अपना विम्ब बना रहा और इसी के मध्य में कहीं एक कविता जन्म ले रही है। ‪#‎ममता‬ ‪#‎किरण‬ के पहले कविता संग्रह 'वृक्ष था हरा भरा' को पढ़ने के बाद कई बार इसी अनुभूति से होकर गुजरना पड़ा। यह उनका पहला काव्य संग्रह है और इसमें उन्होंने बहुत ही सहज, बहुत ही सरल, बहुत सुन्दर और बहुत ही सजीव तरीके से अपनी भावनाओं, अपनी संवेदनाओं को एक साहित्यिक विद्या में पिरोने का काम किया है। इस संग्रह को पढ़ते हुए सहज रूप में एक ऐसे सौंदर्यबोध का जन्म होता है जो हमारे ही आसपास, पास- पड़ोस में बिखरा पड़ा है।
इस संग्रह की कविता ‪#‎हसरत‬ के माध्यम से उन्होंने जिस बदलते परिवेश, बदलते आयाम, समीकरण और समाज की बात की है, उसे देखने, समझने, उस तक पहुंचने के लिए जो दृष्टिकोण चाहिए वह विरले लोगों में ही दिखाई देता है। सभ्यता, संस्कृति, परम्पराएं सदा से ही हमारे जीवन और समाज को जोड़ने की मजबूत कड़ी के रूप में परिलक्षित होती रही हैं। शायद इसीलिए जब यह हमारे समाज के से कटकर अलग- थलग पड़ती, पीछे छूटती, टूटती और बिखरती दिखाई देती है तो हमारे हृदय-आत्मा में एक ख़लिश सी पैदा है। वही खलिश कविता ' हसरत ' में भी दिखाई देती है। निर्जीव चीजों के दर्द को भी ऐसे सजीव रूप में प्रस्तुत करती है कि पूरी की पूरी कविता जीवन्त हो उठती है।
इस संग्रह की एक और कविता ‪#‎अखबार‬ कहने, सुनने और पढ़ने के लिहाज से बहुत ही सरस, सहज और सरल कविता जान पड़ती है। लेकिन एक बासी हो चुके अखबार के माध्यम से जीवन के जिन पहलूओं को उजागर करती है, जिन विषयों को उठती है वह बहुत ही रहस्यों से लिपटा हुआ है। इस कविता को पढ़कर ऐसा लगता है कि कवियत्री बासी हो चुके अखबार के माध्यम से जीवन की बात कर रही है, उस जीवन की सार्थकता को सामने लाने की बात कर रही है जिसे हमने बेकार और नीरस मान, उसकी उपयोगिता को ही नजरअंदाज कर दिया हो। लेकिन सृजन की सार्थकता को केंद्र में रखकर वह एक नहीं अपितु कई- कई सार्थक अर्थ ढूंढ़ लेती है और मानो कहती है कि जीवन बासी नहीं होता, जब तक सांसें हैं, जब तक धड़कने चल रही हैं, तब तक जीवंतता है, तब तक जीवन अनमोल है, आलौकिक है, ओजस्वी है। और जीवन ; जीवन से इतर भी जीवन ही है यदि हम उसके सन्दर्भ ढूंढ़ सकें।
‪#‎सभ्यलोग‬ संग्रह की एक ऐसी कविता है जो समाज के उस वर्ग के मोटी होती चमड़ियों को उधेड़ने का काम करती है जो अपने आपको समाज से उच्च, सुसंस्कृतिक, सुव्यवस्थित होने के स्वांग तले मामूली सामाजिक सरोकारों को भी भूलता जा रहा है। इस कविता के माध्यम से कवियत्री ने बदलते मानवमूल्यों को उभारने, उन्हें सामने लाने की कोशिश करती है। हमारे समाज के ऐसे लोग जो सभ्य होने की आड़ में अपने आसपास इतने सारे आवरण बुन लिए हैं कि उनकी मोटी होती चमड़ियों के नीचे संवेदना और भावना का तत्व कहीं गहरे तूप से दब सा गया है। उनकी चमड़ी पर लदे कपड़े असंवेदना के तत्व बन गएं हैं। आंखों पर चढ़े चश्में दुनिया भर के अंधेरे समेटे हुए हैं, उनके कान अब कान नहीं रहे अपितु स्वार्थ के पुतले बन चुकें हैं जो स्वार्थ और निजता के आलावा कोई और भाषा नहीं समझते। फिर भी वह सभ्य हैं, अपनी अनेक विसंगतियों के बावजूद वह खुदको सभ्य घोषित कर चुकें हैं।
संग्रह की एक और कविता ' ‪#‎जन्मलूं‬ ' ऐसी कविता है जो अपनी दूर तक जाती अनोखी कल्पनाओं के बावजूद हमारे जीवन के ही आसपास कहीं अपनी गहरी जड़ों के साथ हमारे जीवन के ही आसपास कहीं ठहरी हुई दिखाई देती है। इस कविता में जन्म लेने और बार-बार जन्म लेने की के पीछे कवियत्री के कभी पंक्षी, कभी फूल, कभी अन्न, कभी मेघ तो कभी अग्नि बन जाने की जिजीविषा परिलक्षित होती है और कल्पनाओं के एक ऐसे संसार से जोड़ती है जो पाठकों को गहरे रूप से बांधे रखती और कभी भी जीवन से बाहर नहीं जाने देती है। अंतत : बस मैं यही कहना चाहूंगा ''वृक्ष था हरा भरा'' सदैव हरा -भरा बना रहे और हम मनुष्यों में कविता एक जरूरी विषय बने।