मंजुल भटनागर की कविताएं

मंजुल भटनागर की कविताएं बेहद सहज, सरल  सारगर्भित कविताएं हैं. मंजुल की कविताओ में समय का सच है, अपनत्व की असीम पराकष्ठा है और नपे तुले शब्दों का अदभूत संयोजन। मंजुल की कविताओं को पढते हुए ऐसा लगता है कि एक -एक शब्द गले के नीचे उतरते जा रहे हैं. मंजुल की कविताओं में ताजगी है, रवानी है और जीवन को संजोने की अदम्ब जिजीविषा भी. मंजुल भटनागर की कुछ कविताएं-

"1 - नव वर्ष "

जीवन क्रम में
एक दिवस नया
चंहु ओर नवागत
आह्लाद नया
नव वर्ष अभिनन्दन .

गाते भोरें गीत नया
पक्षी करते मंगला चरण
नव सूर्य प्रदार्पण
जुड़ता जाता आशाओं का
इतिहास नया .

सुन्दर आयोजन
रोज आवाहन
नए विश्वासों का
शुभागमन .

जीवन कर्म में
जुडता है जीवन रंग मंच पर
एक पृष्ठ नया
एक वर्ष नया .
मंजुल भटनागर

" 2 - परिसंवाद ".

बुनता है मन
रोज हजारो अहसास
अलसाई सी आँखों में
जैसे कोई रख जाए ख्वाब.

सूरज रख जाता है
हजारों रंग अंजुरी में
चुग ने नही आती कोई चिड़िया
यूँ ही चलता रहता है परिसंवाद .

बच्चे व्यसक से
बूढ़े बच्चे सरीखे
सब बाहर निकलने को आतुर
कुछ टुकड़े आसमान के रंगों के
मिलते हैं तितलियों के पंखों में
तितलियाँ सिमटती चित्रों में
खोलती अपने न मिलने का राज .

पुरानी सी हवेली
लिपि पुती सी मायूसी
खिड़की से कूद कर आती
ताज़ी हवा ओ गुनगुनाती एल्बम.
मिल जाय ,जैसे कोई अपना ख़ास

हजारों चित्र पहचान खोते
दूर उड़ता सा पाखी
खो जाए क्षितिज में उड़ते उड़ते
हो जाय दृष्टी से ओझल
औ फिर न मिलने की हो आस
मंजुल भटनागर

" 3 -  हरसिंगार "

हरसिंगार तुम
स्वप्निल से
पनपे रात्रि के
शुभ्र प्रहार में 
नहीं हुए जर्जर
नहीं हुए बूढ़े
तुम अनंत से अनश्वर
फूलों से सपने भर दो
आँखों में
उच्चरित कर दो मंगल द्रुपद

जीवन्त भरी कोपलें
जीवन रस ले
सृजन सुख भरती
नारंगी फूलों से
महकते हुए बिखरती
विश्रांति दे
प्रकृति में रंग भरती .

आवाहन करती
खिलने ओ महकना ही जीवन है
शिथिल न हो
न हो निराश
कर्म पथ पर
जीवन  सृजन है और है उजास 

"4 - नीड़ तुम्हें बुलाय"

चिड़ियों ने क्यों
शहर है छोड़ा
ढूँढ रहा अविलम्ब सवेरा.

पढ़ लो आकर नीड़ सुनहेरा
घने कुहस में बादल पानी
चिकनी रेत गज दो थाती
तुम्ही बता दो देश की माटी
भेज सुना दो ,लिख दो पाती.

लिख दो जब भी
बरखा आती या लिख दो
जब हवा सरसराती
कम्पन सी जब सर्दी आती .

सरसों ने बिरवे महकाए
आकर मनुवा शोर मचाय
रंग हींन सब बिन तुम्हारें
सूना नीड़ तुम्हें बुलाय .

"5 - बसन्त मुझे भा गया"

शरद चांदनी ले चली
बसंत की कलि
पतझड़ है दुखी
हवाओं ने इतरा  दिया
बसंत मुझे भा गया

मन हुआ उन्मन
फूलों ने महका दिया
कोई नए खवाब लिए आ गया
बसंत मुझे भा गया

सूखी डाल झूम गयी
कोयल भी मौन गयी
ढेर सी कल्पना ने
राग बसंत रच लिए
मौसम भी शर्मा गया
बसंत मुझे भा गया

यौवन ने ललचायी धूप
टहनी फिर से हरी हुई है
कौंपल  लगी झाँकने रूप
बिरवे मन के नाचे दिन भर
अलसायी टहनी पर बसंत मद छा  गया
लो बसंत फिर आ गया .
मंजुल भटनागर

"6  -  संवेदनाएं"

बाँट गयी यामिनी
एक दिवस
एक स्वर्णिम किरण
एक हँसता हुआ बच्चा
एक लिखता हुआ गीत
कोहरा और धुंध में छिपी
अनेको संवेदनाएं
हर कोई ढूँढ़ रहा है सवेरा
शांत सा संगीत.

चुप्पियों में गम क्यों छलक रहा है
शाम कालिख पोते
डूब रही है
धुंध चेहरा दीखता नहीं कुछ
लबादा सा ओढ़े ,रात ढल रही है
पसरा सन्नाटा बहरी सी  ख़ामोशी
मिलती हैं जब
एक अट्टहास गूँजता है निर्जन में
नशे में धुत पाखी
उड़ चला अनजान मंजिल की ओर
सत्य शायद कुछ बोल सके .
कुछ ढके राज खुल सके .

" 7 -  तुम आओगे यादों में "

जब तुम आ जाओगे यादों में
स्वपन जीने लगेगें
बहेगी ठंठी हवाएं
नाम तुम्हारा बादल बन
घिर जाएगा मन आँगन
बरसेगा प्रेम सुगंध

तुम आओगे यादों में
एक मौन स्पर्श
छू लेगा अंतर मन को
फिजायें रंगीन बन
ओड़ लेगी इन्दर धनुष
राग बजने लगेगा चारो ओर
रंगों से घिर जायगा मधुबन .

जब तुम आओगे याद
स्वप्नों में तुम्हारे नाम का
महावर लगेगा
पंछी भी शगुन लिखेगा
मन  किसी कल्पना से जुड़ेगा.

आसमान झुक कर धरा से  मिलेगा
रोली चावल संग
कोई गुल मोहर सा नाम
मन श्वास  खिलेगा.

" 8 - वासुदेव कुटुम्बकंम "

रे पक्षी सीमाओं से परे
उड़ कहाँ जाते
हवाओं संग
बैठ हवा के पंखों पर
अनजान देश
दोस्ती की महक लें
खोज लेते अपना नीड
बन राहगीर.

नभ के काजल
ले पारिजात
घूमते परदेश
सीमा न कोई वेश
लें कर अपने
मृग छौने बादल
खान बदोश से घूमते यायावर.

कभी यूँ ही कालिदास की
कथा बांचते फिरते ओ ,राहगीर
ले कितनी जल राशि
बरस जाते कहीं
दूर जंगल पहाड़
अनजान देश,बनाते तकदीर .

महकाते मिट्टी
हवा संग
बहती संस्कृति ,सीमाओं परे
होती धरा वासुदेव कुटुम्बकंम
फैलती अबीर .

" 9 - परछाईं"

नीद में जगी सी
कल रात सजी सी
सूरज डूबा तो उतर आई
पंख  लिए फलक से मेरी ही परछाई
देह बन साथ चली
मेरे संग मेरी  परछाई

फूलों ने रंग भरे  फिर
खुशुबू ने प्राण भरे थे
देह रची मेहंदी  की
दुल्हन बनी शहनाई
देह बन साथ मेरे चल रही परछाईं

लुका छिपी खेलती रही
अक्स को टटोलती रही
झाँक कर मन  यूँ ही
साथ साथ दौडती रही
प्रेम संग  डोर बांधें
भाव का सिंदूर माथे
देह बन साथ मेरे चल रही परछाईं

धरती की कोख में पली
मेघ की ओट हो तो छली
चाँद के साथ ही अल्पना से रंग लिए
भोर की कल्पना में मुग्ध सी
 देह बन साथ मेरे चल रही मेरी ही परछाईं.

"1 0 - मोती मोती छंद हुए "

आखर आखर
टपकी स्याही
अक्षर अक्षर शबद गुने
मोती मोती छंद गुथे तो
मन के सुन्दर गीत बुने

भाव दिवस के
पल में तोले
आस निरास  पैबंद  हुए
ओढ़ दुशाला
साँझ जो उतरी
मन बंधन, अनुबंध हुए


बहती नदी
लगी थी ज़मने
नाव समेटे ,खुशबूं  आई
शबद लौट कर दूर देश से
खवाब सजाने को लायी  
कोयल लगी
कूकने फिर से
फूल  खिले ,अलंकरण हुए

शब्द सुधा बन
टीस मिटा दी 
जल तरंग सी बजी वेदना
नही कहा जो
आज है कहना
श्रोता  हरसिंगार सरीखे
झूले से कुछ गीत हुए।
मन के सुन्दर गीत बुने तो
मोती मोती छंद हुए .