स्वाति वल्लभा राज की कविताएं

स्वाति वल्लभा राज की कविताएं सामाजिक चेतना से प्रेरित कविताएं हैं। स्वाति अपनी कविताओं में राजनीति कि बात करती हैं जीवन कि बात कराती हैं, उन दबी -कुचली सच्चाइयों कि बात कराती हैं जिनका आधार जिंदगी को चलने वाली रोटियां हैं। स्वाति की कविताओ को समयकाल कि कविता खा जा सकता है। स्वाति के लिए कविता सामाजिक विसंगतिओं से जूझती, बाहर निकलने कि कोशिश करती अन्तर्दंध जान पड़ती है। आपभी पढ़िए ...

1. शहज़ादी रोटियाँ
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खुद भी नाचे, तुझे नचाये
गोल-गोल रोटियाँ ,
भूख है जिसके पैर दबाती
शहज़ादी  रोटियाँ।

सरहद की गोली में देखो
नर्म-नर्म रोटियाँ,
कोठे के धंधे मे हंसती
गर्म-गर्म रोटियाँ।

भूखे-नंगों की चंदा जैसी
दूर हैं रोटियाँ,
चूल्हे की ठंडक में सिंकती
ख्वाब सी रोटियाँ। 

बेबसी की राह में
गायब हैं रोटियाँ,
बेंच दो ईमान,धर्म तो  
हाज़िर हैं रोटियाँ ।

खाते नहीं हो तुम हीं मगर
सिर्फ रोटियाँ,
बहरहाल तुम्हे भी तो
खाती है रोटियाँ ।


2. क्या खूब कही
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क्या खूब  अडिग, उन्नति मार्ग पर हम
पर डोलती हमारी संस्कृति  है |
पत्थरों  को भी पूजता  जो देश,
लाशों की हो रही यहाँ राजनीती है |

हरिश्चंद्र  आदर्श जहाँ पर;
सत्य,वचन के रखवाले,
वहीँ खड़े काल्माड़ी,लालू;
घोटालों को खूब पचाते |

राम-राज, स्वपन बापू का
स्वाधीन देश में आएगा,
पर कांग्रेस के रहते क्या ये,
उम्मीद सफल हो पाएगा ?

भूखे,नंगों की राजनीती औ,
अपने हित जो साध रहे,
आतितायियों को कबाब देते,
क्या छाप दिलों पर डाल रहे?

जनता भी सोकर जगती और
जगकर फिर सो जाती है,
सौ अन्ना भी हैं कम यहाँ
सौ "आज़ादों" की ये पाती है

बढ़ें हो चाहें जी.डी.पी.
पर रेट में कछुएं  प्यारे हैं,
और भ्रष्ट तो अम्बानी भी पर
ग्रोथ रेट तो न्यारे हैं |

मैंने भी क्या है खूब कही,
कहकर है पल्ला झाड लिया.
इस तंत्र से अलग हूँ,थोड़े हीं,
खुद हीं क्या है उखाड़ लिया ?

इससे पहले ये नरक हो जाये,
खुद पर हीं एक एहसान करूँ,
भ्रष्ट रहित  पात्र बनकर
भारत माँ का उद्धहार करूँ |


3.  जज्बों कि चौपड़
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भावनाएं नंगी खड़ी दुनियादारी के बाज़ार में,
कभी तो है बोली लगी,कभी नुमाइश इश्तहार में |
नीलामी हुई कहीं समझदारी के नाम पर
कहीं बेचारी लुटी पड़ी बेवफाई के दाम पर|

कभी चाँद छूने की होड में खूब नोच-खसोट हुई
कभी जज्ब को चाँद कह,शीतल अर्क की छिनौट हुई |
भाव जो तेरे खरे-खरे तो हर कदम पे इनको वार दो
इसके साथ में तो सब मिले,फिर चाहे इसको हार दो |

जिंदगी की चौपड़ में,हर शख्स आज धर्मराज है,
जज्बों की द्रौपदी की बिकती अब भी लाज है |
फिर चाहे इसको छल कहो या मज़बूरी का जामा दो,
महाभारत तो अटल हीं है,चाहे जो हंगामा हो |


4. पराजिता
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भींगी पलकें,
सूखते लब,
गुम हुए शब्द,
धराशायी स्वप्न,
स्तब्ध सोच,
किंकर्तव्य विमूढ़ एहसास;
आज बिल्कुल
मृत हैं|
क्या अब भी कहोगे
तुम कर सकती हो?


5. बदल जाते हैं
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 कभी हम कभी तुम तो कभी हालात बदल जाते हैं...
आकाँक्षाओं के तले हमारे जज्बात बदल जाते हैं....
यायावर इहाओं कि क्या बिसात अचल रहने की
ज़िन्दगी के थपेड़ों में तो माहताब बदल जाते हैं|
ज़ख़्मी जज्बों की मरहम-पट्टी करते करते
कई बरसों के सुनहले दिन रात  बदल जाते है...
हर मौसम में बदले,हर क्षण मोहताज़ रिश्ते;
बेबसी तो कभी उन्माद में  अंदाज़ बदल  जाते हैं...


6. डर
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मन उद्विग्न,तिस पर कुत्तें भी हैं रो रहे |
कौन सा सुकून दूँ,ऐ मन तुझे जो खो रहे |
सोचा उठ रही हूँ ऊपर अपने हरेक दर्द से |
कैसे उमड़ी अश्रु नदियाँ;बंदिनी,वशित फिर मर्म से |
कतरा आँसू का हर,अमिट छाप मन पर छोड़ता |
चेहरा तो धो लूँ मगर ये दाग दिल पर कुरेदता |
जाने क्या विपदा झेले अब ये मन और ये आत्मा|
डर के साये में सिसकती,पलती,जियेगी मनोकामना|


7. राजनीति
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अहिंसा,सत्याग्रह के दत्तक ही,
भूल चले उस राह को.
नत-मस्तक हूँ मै
हे राजनीति !
तेरे काया-कल्प पर !
स्वर्णिम इतिहास रचने वाले
पोत रहे अब स्याही,
नत-मस्तक हूँ  मै हे! राजनीति
तेरे नव रूप पर !


8. नाकाम कोशिश
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कर गए बेपर्दा
अनकहे ज़ख्मो को ये आँसू,
कोशिश तो की थी हमने
ता-उम्र मुस्कुराने की |


9 .ऐ प्यार तू अनामिका होता
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ऐ प्यार तू अनामिका होता तो
ऐसे बदनाम ना होता |
शब्द-सीमा से परे होता
तो अनाहत अनाश्य होता |
अनिंदित,अनादी होता,
अनामय अनवरत होता |
शब्द-जाल में फंसा ना होता
तो अछिन्न,अच्युत, अचल होता |
तू अतर्कित,अतर्क्य होता
तू अतन,अवनी,हवन होता |
मोह-जाल में फंसा ना होता
तो अतुल,अकथ,अत्रस्त होता |


10.जीवन
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अन्तः-मन कानन में विस्तृत रम्य अनेकों वन हैं |
कुछ सतपुड़ा-जंगल से घनेरे,कुछ छिटके से जन हैं |
सपनों को कभी विश्राम देते,कभी उद्विग्न मन हैं |
कभी अस्तित्व आश्वस्त करते,कभी विरक्त तन हैं |
रश्मि-रथी के ओज से वंचित कहीं अंधेर नगरी बसी,
अत्यधिक तेज से झुलसी कहीं कोमलता जली पड़ी |
स्वयं को अभिभूत करते फल हैं कहीं आच्छादित हुए,
बाँझपन का फ़िकरा कसते फिर  निर्मम योजन हैं |

नदियों के तट बांधे हुए अडिग से कुछ यौवन हैं,
झंझावात से थके हुए निराश,पड़े से कुछ जीवन हैं|
अन्तः मन की कौतुकता और आत्म-मंथन की तत्परता
हैं कहीं वन की शाश्वतता,तो कहीं बिखरे,लूटे क्रंदन हैं|


11. रोटियाँ
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जलते हुए ख्वाबों के अध-जले
राख बटोरने हम चलें |
प्यार के इस इल्ज़ाम को भी
खुद को सौपने हम चलें |
तिनका-तिनका हो वजूद मेरा
जो बिखरा था  तेरे आशियाने में,
गैरों की महफ़िल में अब
दामन में समेटने हम चलें |
हमारे प्रेम की तपिश,
उस तपिश से ता-उम्र
रोटियां सेंकने हम चलें |

वो रोटी तो अध-पकी ही रहेगी अब
पर साँसों के विराम को
इसी से रोकने हम चलें |
वो रोटी जो कभी सिकीं थी नरम
याद तो बहुत आएगी |
पर तेरे नफरत की आग में जले
रोटियों को भूलने हम चलें |