जानवी जूली अग्रवाल की कविताएं

जानवी जूली अग्रवाल की कविताओ में बहुत ही ज्यादा सौम्यता है. यही सौम्य व्यवहार हमें अपनी तरफ खींचता है. जब हम पढते हैं तो शब्द अनायास ही अपना दायरा बनाता है ; और हृदय की गहराई में उतर कर अपना एक स्थान बना लेता है. सहज शिल्प, प्रवाहमयी भाषा और संवेदनाओं का गहरा रंग जैसे -जैसे गले के नीचे उतरता है ; पाठक का मन बरसता ; भीगता ; उन्मुक्त सा उड़ता … और उड़ता ही जाता है. आप भी पढ़े जानवी जूली अग्रवाल की कविताएं -


(1 ) मैं एक स्त्री हूँ         
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सृजन कर कोख में जीवन
सृष्टि को साकार करती हुई
मकान को घर में तबदील करती हुई
एक घरोंदा परिवार का बुनती हुई
मै एक स्त्री हूँ,
सामाजिक पतन करती हमारा
कुछ विकृतियां
भूल क्यों जाती समाज उनकी विरासत नहीं
पुरुष प्रधान सदियों से क्यों  बनते रहे
शायद खौफ गहरा था तुम्हारा
जो अंजाम यूँ देते रहे
पंख देकर भी तुमने
काटने को कसाई कई तैयार खड़े करते रहे
क्षितिज सा कलेजा क्यों हमारा
मातम अपना अपने ही सीने में दफ़न करते रहे

देवी की उपमा देकर ढोंग क्यों हो रच रहे
बेटी थी जो कभी माँ बनकर तुझे जीवनदान दिया
और नरभक्षी बन तूने उसका ही संहार किया
मर्यादायों कि बेड़ियों में क्यों केवल
मुझको ही जकड़ा गया
कराहती हथेलियां में बेबसी क्यों टपक पड़ी
जबकि घर कि छप्परों के सुराखों को
अपनी अरमानों से सिलते रहे
पति जो उसके माथे कि लाली था
जाने पर उसके क्यों उससे भी मरहूम हुई
चूड़ियाँ लाली मेहंदी हर श्रृंगार की
आखिर क्यों मौत हुई

मद चूता मस्तक से जब बेटे कि शादी में
बाप अकड़ जाता
सर का ताज सजता उसके जो बेटी को सौंप
तेरे कुल को सींचे त्याग से अपने
हमारे वजूदों के कब्र पर आखिर
तेरा झूठा अहंकार कैसे पनपेगा
धराशायी होगे तुम तेरा पौरुष
तुलसी हूँ मै जब तक है साँसे
तेरे हर रोग का उपचार मैं
मेरा जड़ जो कुरेदा
नष्ट सम्भव है तेरा
एक ही प्रशन  कौंधे है मन में
राम ने आखिर क्यों धोबी के कहने पर सीता का परित्याग किया
क्यों  अग्नि परीक्षा केवल सीते का
पांडव ने आखिर क्यों पत्नी को जुए में लगा नीलाम किया

(2) सत्य जो कड़वा है 
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तुमने पहनाई उन्हें
हर दहलीज पर
वो सादे कफ़न की लिवास
जिसे तुम्हारे मर्यादाओं के
ढकोसलों से सीला गया था,
ये कफ़न उसके अस्तित्व के
पुर्जे तक को दफ़नाने के लिए
दी जा रही रही थी,
उनके चीखते अरमानों का
गला घोटने के बदले
एक ओहदा मिला
त्याग और बलिदान की देवी का
जो अपनी बलि दे सके
तुम्हारी ख्वाहिशों के बदले
जी सके
और तो और
मुट्ठी भर आग उनकी जेहन में
छोड़ दी जाती ताकि
उनकी अगली पीढ़ी का निर्माण
उन्ही के जलते हाथों हो सके
जब भी उसने उस सादे कफ़न में
अपनी वजूदों के रंग भरने की कोशिश करी
उन्हें फिर से दफ़नाने को
कब्र खोदना शुरू किया तुमने
पर
उनके होसलों की ताकत इतनी गहरी है
की तुम्हे कब्र खोदते खोदते
कई जन्म लग जायेंगे
और तुम उसकी पहचान मिटाने की होड़ में
खुद की पहचान खो चुके होगे ..

(3) मजदूरन 
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जब खेतों की आड़ पर
बैठी सुलगाती है वो एक बीड़ी
जलाती है अपने अरमानों को
फूंकती है खुद को और जमानों को
साथ ही ताक पे रखती है
एक सभ्यता और
ठंडे शुथूल पड़े
अपने ठेठ दर्द के दरारों को
ये मजदूरन नहीं
भेड़ियों के झुण्ड में शेरनी है,

पुआलों के ढेरी सी  बोझ उठाती है
घर के खप्परों का,
जब कभी खाना पकाते हुए
चूल्हे पर जब जल जाती है रोटियां
लेकर पल्लू में बड़े चाव से चबाती है
फिर दुःखों कि बोटियाँ
पति के पैरों को दबाते हुए
पसीजे हाथ से निकले
आह को पी जाती है
पर भेड़ की खाल पहने होता है
ऐसा भी कोई पति जो
निर्ममता से हत्या करता है
उनकी भावनाओ का
अपनी खोखली भुजाओं से,

उलझे बालों में
धुल भरे गालों में
नमक की सुखी रेखाएं को पोंछती
घुंटने तक बंधी अपनी धोती में
कंधे पर एक मैला गमछा
जो हर बार बिन साबुन का धुलता हुआ
हाथों में जीवन की ढाल मतलब एक कुदाल
सर पर लेकर धान की सुनहली पोटली
लचकते कमर के साथ लम्बे डग भरती हुई
हमारे गवांर कह देने पर
खिलखिला जाती है
जैसे हमने कोई औदा दे डाला
अब हम तय करे गवांर
हम या वो  …

(4) बुढ़ापा अभिशाप नहीं
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जब भी कल्पते हुए
आहत मन
चोट खाता हुआ धरल्ले से जमीं पर गिड़ता है
उनके रूह की सिसकियाँ
आँखों में उभर आती है,
वो निबाले कि तरह प्यासे मन को
एक घूँट उधार देता है,
और ये उधारी कभी चुकता नहीं क्यों ?
बुढ़ापे कि तपिश में झुलसता आखिर क्यों ?
कसूर उनके उजले बाल का क्या
शायद उम्मीद जो कर ली
आने वाली पीढ़ी से,
जो उनके
लड़खड़ाते क़दमों से दोस्ती करेंगे,
हथेलियों कि ताकत बन
जीवन कि नैया पार लगाएंगे,

न भूलों अपनी पहचान उनसे मिली है
जीवन का मतलब उसने बताया
हमें भी उस ओर ही जाना है,
तो क्यों न उस रास्ते को हम प्यार से सीचे
जो फूल बन हमारा स्वागत करेंगे,
बुढ़ापा अभिशाप नहीं
तजुरबे कि तिजोरी है,
प्यार का विशाल खजाना है,
ढूँढना हमें है उनका साथ देकर
प्रेमअश्रु के घूंट देना है
उनके कलेजे को सवर्दा के लिए !

(5) अनकही बातें
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यादों का बस्ता संभाले हुए
अंतर्मन में होती एक असीम सी
सुखद अनुभूति
बस्ते के हर हिस्से के
जर्रे जर्रे में चमकता आफ़ताब का नूर
और किताबों के हर पन्नों पर मौजूद तुम,

बटोरकर तुम्हे जब जी चाहा
समेट लिया खुद में
ना किसी ने रोका न टोका
बरसों तक साँसों के साथ बंधे रहोगे
करके वादा मुस्कुरा दिए तुम,

बहुत गहरे राग छोड़े
पुराने कुछ लम्हों ने तेरे
रोकर मुस्कुराना
कभी ग़मों को जीत जाना
ख्वाबों संग फड़फड़ाना
कभी आसमां को जीत लाना,

पर मैं कहूँ
मै ही हूँ सृष्टी तेरी
ये अभिमान नहीं
स्वाभिमान हमारा
ठहरो तो तेरी यादें की जरा खोलू गठरिया
भागों न ऐसे.
फुसफुसाते हुए लम्हे सुहाने
जो कह गई मेरी,

दूषित बड़ी है फिजाये
जरा सम्भलकर
धीमे धीमे यादों ने जो छोड़ा
तुम्हे ही सहेजना है
अपने पन्नो पर मेरी कुछ कही
अनकही बातें !

(6) मेरा देव शिल्पी तू
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कुछ अरसा पहले
देवदूत बनकर
एक इतिहास रच डाला
तूने मेरे जीवन के
कोरे पन्नो पर,
ख्वाबों की ताबीर लिए हाथों में
कुछ माटी के कण
कुछ चिंगारी हिम्मत की चुन
कुछ यूँ ही आकृति बना दी मेरी,
आत्मविश्वास का कवच पहना
मेरे अस्तित्व को
मुझसे मिलवाया
मेरे जीवन में तू
और कुछ यूँ आया,

शिल्पकार तुम ही जीवन के मेरे
नीरसता में भर अमृत के प्याले
जीवित कर एक पुतली को तूने
मुझको
एक नारी की शक्ति से
अवगत करवाया,
मन के द्वारे
आत्मा में भी मैंने तुझको यूँ पाया,
जब ममत्व ऒझल हुआ नज़रों से
रिश्तों का मतलब जान गयी मैं,
क्षत विक्षत हो
लहुलुहान जब गिरी जमीं पर
परछाई बन थामा तूने ही मुझको
देवलोक का देवदूत तू
प्रेमी बन प्रेम करना सिखलाया,

गूढ़ रहस्य है ये हर रिश्तों की
प्रेम एक शब्द मात्र नहीं
ये अनुभूति सार है सुखद जीवन की,
हाँ सच है,
कुदरत ने जब गढ़ा होगा मुझे
शायद मेरा ही
एक अंश फिसला होगा हाँथों उसके
रही अधूरी मैं
जब तक तू न आया,
तेरे आते ही
पूरी हुई अधूरी मेरी काया,
देवलोक में रहकर तू
देवदूत बन जब मेरा आया,
मेरा देवशिल्पी तू कहलाया !

(7)  मै तुम ही तो हूँ
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कई जन्मो से तू मेरा ही तो है,
तभी तो अपने साये में तेरा ही अक्स देखती हूँ,
जब भी खुद को निहारा है शीशे में,
अपनी शक्ल में तेरी परछाई दिखी है,

ना घबराना कभी जीवनपथ में तू
तेरी हथेलियों में लकीरे
मेरी ही साँसों से खींची है,
महसूसना अपने हाथों को
जो मेरे साथ से बढ़ रही है,

जाने अनजाने कभी टूट पड़ी थी तुम पर
तुझे खुद बनाने कि जिद पर जो अड़ी थी,
तुम टकटकी लगाये मुस्कुरा पड़े
तेरी आँखों ने बताया हौले से
कम्पन करते ओठ बुदबुदा रहे थे,
पिछले कई जन्मो से कई जन्मो तक
मै तुम ही तो हूँ ...

(8) हकीकत बना ख्वाब 
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जब ऊंघने लगती है कमरे कि दीवारें
चीखती है खिड़कियाँ खुली हवा की तलाश में,
मेज पर धुल खाती हुई कुछ ख्वाहिशें जो
डायरी के किसी अधफटे उजले पन्ने में कैद
फड़फड़ाते है अपने परों के लिए,
ट्यूब लाइट की चमकती आँखों ने
कितनी बार सूजी पलकों में पानी के छीटे दिलवाएं,

चादर कि सिलवटे कह रही थी कहानी
गीले तकिये गवाह थे,
सपनो के गुम के
सौदा जो तय हुआ था,
हम तो वसूलों के बड़े पक्के है,

सपने अब खुद ही हकीकत बनने को आतुर
हो तो भला हमारा कसूर क्या है ?


(9)  प्रेम में एहसास 
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बुन बुन कर रेशमी तारों से
प्यार की एक चुनर बनाई,
ओढ़ उसे तितली बन
कई सुनहरी यादों के कसीदे लगाती,
अपने प्रीत का गोटा लगा के उसमे
भर देती चाहत के कई रंग
जब एक स्याही ओढ़
सन्नाटे में सब नींद की आगोश में होते,

गोधुली बेला में चुपके से कुदरत ने भी
कई बार रंगा था उसे
सावन में इन्द्रधनुष ने भी
सातों रंग डाल ही दिया मेरी चुनर में,

आखिर पूछ ही डाला रूह ने मुझसे
मेरे प्यार के किस्से
मैं भी कह डाली
वो प्यार नहीं परछाई था मेरा
परिभाषित करता हुआ प्रेम को
आत्मा में जिसका पदार्पण हुआ
कितने जन्मों के कर्मों का
लेखा झोखा तय कर
जा लिपटा मेरे अंतर्मन से,

मै तो वो नादां हिरनी थी
ढूंढ़ रही जो कस्तूरी को
दस्तक दी बन कस्तूरी वो तू ही था
अधरों पे मेरे बन कान्हा
वो तू ही था

एक दिन बाग़ में मेरे टहल रहा था चाँद
बोल मुझसे आखिर कैसा तेरा प्यार
मै मुस्काई नैन लड़ाई
तू ढूंढे क्यों मेरा प्यार
चाँद बोला
हाय कैसा बाजी मार गया
मुझसे भी तेरा प्यार
नज़र लगी फिर ऐसी सबकी
जा विलुप्त हुआ समंदर की गहराई में वो
तब राइ सी बिखर पड़ी मै
समेट हथेलियों में वो ले गया
जहाँ के उस पार
जोड़ा फिर मुझको
दी फिर से एक आकार
फुकीं फिर जान
जिन्दा बन लौट गयी मैं
तू अमृत बन रग में दौड़ पड़ा
धक धक् करता सीने में हर पल
समा कर कुछ इस तरह  मुझमे
हर पल हर क्षण भरता रहा साँसे मुझमे
आखिर जीत ही गया मेरा प्यार
तारों की आती फिर बारात
शंख नगाड़े बजाते हुए परिंदे
गीत मिलन को गाती कोयल
चंदा सूरज करवाते फेरे मेरे

और तू सजन ...
मेरी वही चुनरिया
इश्क से सौंधी
जिसे मैंने और कुदरत ने
कई बार रंगा था
चुराकर जहन से मेरे
सजाया करता हर दिन मुझे
मै  हर दिन बनती दुल्हन तेरी

(10)  न भाये विरहा 
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विरहा के गीत नहीं भाते मुझे,
एक पीड़ उस गीत की आँखे नम कर जाती है,
कंपित करता हुआ मन
कोई बिछड़ता है जीवन उपरांत
कोई जीते हुए जीवन कैसे
यादों की पोटली के सहारे
संभाले हुए अंजुमन में
उसकी छवि को निहारते हुए
ख्वाबों में उसका साथ लिए
हथेलियों में उसे महसूस करते हुए
हर पल मिन्नतों में
थामता हुआ उसकी खुशियाँ
अपना पूरा जीवन
न्योछावर करता हुआ
अपनी हर साँसों में लेता हुआ नाम
आभास करता हुआ पल पल उसे
कैसे आखिर कैसे
पीता है कोई विरहा की अग्नि
जल कर जीता है कोई कैसे
शायद,
प्रेम बुझा देता है विरहा की अग्नि
कलेजे को प्रदान करता है शीतलता !