जन्म - उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जनपद में।
शिक्षा - जवाहर नवोदय विद्यालय गोरखपुर / भारतीय मीडिया संस्थान दिल्ली।
कार्यक्षेत्र - शोधकार्य, मीडिया एंड टेलीविजन लेखन। साहित्य, सिनेमा, रंगमंच एवं सामाजिक कार्य में रुचि।
प्रकाशित कृतियाँ –
एक
यात्रा वृतांत, दो कविता संग्रह शीघ्र आने वाला है। विभिन्न पत्र
पत्रिकाओं, टेलीविजन एवं आकाशवाणी से रचनाओं का प्रकाशन प्रसारण। नुक्कड़
नाटकों का निर्देशन। 25 से अधिक नाटकों का लेखन।
सम्प्रति – बीबीसी गैलेरी इंडिया में शोधकर्ता एवं लिंक राइटर
ईमेल- sanjaypal1@live.com/ sanjayshepherd22@gmail.com
दूरभाष संख्या : 8 3 7 3 9 3 7 3 8 8
1 - स्वप्न जो जिंदा हैं
स्वप्न जो जिंदा हैं
हमें वास्तविकता की तरफ ले जाएंगे
स्वप्न जो टूट गए
बिखरने से पहले
जीवन का अहसास कराएंगे
मैं बढ़ रहा हूं
उन जर्जर हो चुके राश्तों पर
जिनके सिर्फ निशान बाकि हैं
चारकोल की सड़कें भी ख़त्म होने को हैं
मैं बढ़ रहा हूं
कुछ और दरवाजे खुलेंगे
आप मेरे साथ आना चाहेंगे
मैं जनता हूं
हरगीज नहीं आएंगे
मौत कुछेक को ही प्यारी लगती है
नई दुनिया में
दरवाजों के खुलने का मतलब
मौत के आगे का जीवन ही तो है ?
2 - स्वप्निल प्रेम
एक सपना बनकर
उतर सकती हो
तुम उतनी ही गहराई में
जितनी गहराई से
तुम मुझमें उतरना चाहती हो
मैं रात्रि के अंधेरे में
सोते समय भी
अपनी पलकें खुली रखूंगा
तुम उतर आना मुझमें
मेरी आंखों के राश्ते
अपने कमरे की खिड़की से
घर की दहलीज लांघ
हम दोनों जी लेंगे एक दुसरे को
हम दोनों जीते रहेंगे एक दुसरे को
हर रात, स्वप्न टूटने से पहले।
3 -असीम यांत्रणाएं
जीवन छोटा है
यांत्रणाएं असीम
मैं दुखों को
खोना नहीं
दर्द से
उबरना चाहता हूं
सज्जनों !
महानुभावों !
मुझे सूली पर
मत लटकाओ
नहीं तो
मैं ईश् बन जाऊंगा
तुम तो जानते हो न
पवित्र घाव
इंसान को
ईश्वर बना देता है।
4 -सूखे हुए होंठ
सूखे हुए होंठो पर
बूंद भर पानी
ऐसा लग रहा है
चांद ने झूककर
तपते हुए
रेगिस्तान के
जलते हुए होंठों पर
होंठ रखकर
चूम लिया हो
तुम्हें छूकर
आज फिर से
मैं तृप्त हो गया।
5 - प्रकृति की गोद
आओ ! हम और तुम भूल जाएं
एक दुसरे का अतीत
वर्तमान की खिड़की से
झांकना सीखें
यदि संभव हो मेरे मनप्रीत
मैं खिड़कियां खोलूंगा
तुम खिड़कियों से परदे हटाना
टुकड़े - टुकड़े रोशनी से
अंधेरे कमरे भर जाएंगे
उताल हवाएं नाचेंगी
गाएंगी / गुनगुनायेंगी शब्दगीत
हम दोनों एक दुसरे की
बांहों में बांहे डालकर झूमेंगे
एक दुसरे के वक्ष / होंठो को चूमेंगे
प्रकृति हमें हंसना सिखा देगी।
6 - देह की गहराईयां
कभी - कभी ऐसा लगता है
एक सवाल की तरह उतरता जा रहा हूं
कभी धरती, कभी आकाश
कभी पाताल, कभी तुम्हारी देह में
और स्वप्न एक डोर की तरह
खींचता जा रहा है सबको
अपनी परिधि में समेटता हुआ
फिर भी लौट आता हूं
धरती, आकाश, पाताल से
पर तुम्हारी देह से
चाहकर भी नहीं निकल पाता
सोचता हूं
समुंद्र को थोड़ा और गहरा होना था
धरती को थोड़ा और बड़ा
आकाश को थोड़ा और विस्तृत
तब भी क्या मैं ...
तुम्हारी देह से अलग हो पाता ?
कहना मुश्किल है !
मैं आत्मिक, बस आत्मा का रहस्य ढूंढ़ रहा हूं
तुम्हारी देह की गहराईओ में तो अनंत छुपा है।
7 - जब तुम पेट से थी
जब तुम पेट से थी
तुम्हारे पेट की खाली दीवारों पर
उभरने लगे थे
मेरे नयन - नख्श, हाथ - पैर
तुमने क्या -क्या नहीं सहा था
तुमने क्या -क्या नहीं गहा था
क्या कुछ नहीं सुना था
मेरी जन्मति सांसो की इंद्रियों ने
तुम्हारे गर्भगृह की दीवारों पर
अपना कान लगाकर
अपनी अंगुलियो से
तुम्हारे दर्द को महसूसते हुए
अपनी संवेदनाओ में सोते - जगते
तुम्हारे दर्द को महसूसना
मैं उसी वक़्त सीख रहा था
जब तुम्हारे दैविक अंगों से
मेरा अंग बन रहा था
तुम्हारे रक्त का संचार
मेरे रगो में प्रवाहित हो रहा था
जब तुम पेट से थी
तुम्हें मेरे लिए हर दर्द सहना मंजूर था
तुम्हें मेरे लिए हर बात सुनना मंजूर था
वह वक़्त भी आया जब तुम्हें
शारीरिक यातना का शिकार होना पड़ा
लात - जूतों के भारी भार से
पेट पर हाथ टिका गिर गई तुम
कोरी जमीन पर
किसी पहाड़ की माफ़िक
और उफ़ डाक नहीं किया
पीठ पर टूटता रहा बज्रपात घंटो
तुम्हें तो बस पेट की चिंता थी
जब तुम पेट से थी।
8 - अरमानों की अर्थियां
तुम निकलते रहो
हमारे अरमानों की अर्थियां
हमारे ही कंधे पर सिर रखकर
हम शांत देखते रहेंगे
अपनी ईच्छाओ को
अपनी ही आंखो के सामने
चुपचाप दहन होते हुए
तूफान शान्त है
पर यह आग की लपटें
तुम्हारे सिर तक
एक दिन पहुंचेगी जरुर
आखिर तुमने भी तो अपना सिर
हमारे ही कंधे पर रखा है
और यह अंगारे
कब किसके सगे हुए हैं ?
यह उतनी ही शिददत से
तुम्हें भी जलाएंगे
जितनी शिददत से मुझे जला रहे हैं
वक्त के भयावह गहरे अंधेरे।
9 - इंसानियत
राह चलते -चलते
उसने पूछ लिया मेरा नाम
मैंने भी राह चलते -चलते
पूछ लिया उसका नाम
आगे बढ़ने लगे
हम दोनों साथ - साथ
कुछ दूर चलने के बाद
कुछ और अनाम लोग मिलें
हमने उनका भी नाम पूछा
उन्हें भी अपना नाम बताया
वस्तुत : इससे आगे
किसी को कुछ और
बताने की जरुरत नहीं पड़ी
क्योकि सभी एक जैसे इंसान थे
सभी अपने बारे में जानते थे
इंसानियत ही
सभी की सभ्यता थी
इंसानियत ही
सभी की संस्कृति थी
इंसानियत ही
सभी का आखिर परिचय था
अब वह राह दिखाई नहीं देती
या फिर लोगों की जेब से
इंसानियत गिरकर कहीं खो गई
लोग तो वही हैं
राह भी वही है
बस वह इंसानियत दिखाई नहीं देती।
1 0 - रात की गहराई
रात की गहराई में
तेज, तल्ख़ हवाओ के बीच
चिरागों की बेवसी
मेरी जिंदगी की तरह है
उतर आती है अक्सर चेहरे पर
बर्फ सी जम जाती है
मेरे माथे पर नमी बनकर
मेरे दमकते चेहरे की लौ
आग से घिरने के बाद भी
बुझी - बुझी सी रहती है
जब छा जाती हैं
बेवसी की हजारों बेवाक लकीरें
तूफान है कि तनिक भी
थमने का नाम नहीं लेता
रात परस्पर गहरी होती जाती है
चिराग बुझे भी तो बुझे कैसे ?
तुम्हारी दोनों हथेलिओं का घेरा
सृष्टि का वह सुरक्षा कवच है
जो जीवन के अंधेरों से
प्रकाश को लड़ना सीखा देता है।