कंचन पाठक की कविताएं

कंचन पाठक की कविताएं की कविताएं लयबद्य कविताएं हैं। इनकी कविता का हर शब्द मन में एक संगीत छेड़ता है। कविता की हर एक पंक्ति को पढने के बाद ऐसा लगता है कि वीणा के तारों को कोई तान दे रहा है। कंचन पाठक की कविताओ में वह साहित्य दिखाई देता है जो हमारी आंखों से ओझल हो रहा है। बेहद नपे- तुले - सार्थक शब्दों में कविताओ के माध्यम से जीवन, जीवन प्रेम  को जाहिर करती कविताओ का अपना एक बेहद खूबसूरत और अलहदा मिजाज है। आप भी पढ़िए कंचन पाठक की कुछ कविताएं -

नाम  - कंचन पाठक
पिता का नाम - डॉ. ए. एन. पाठक
शिक्षा - प्राणी विज्ञान से स्नातकोत्तर. (M.Sc. in Zoology)
प्रयाग संगीत समिति से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रभाकर.
गायिका, स्वतंत्र रचनाकार और चित्रकार.
निवास  स्थान - मुंबई
Email Id - pathakkanchan239@gmail.com


1) " प्रेम-घन "

तेरा हीं नाम सजता है
मेरी सांसों की सरगम में
सदा प्रतिबिम्ब तेरा हीं
मेरे ह्रदय के दर्पण में l

            ऐ चाँद ! तकती हैं
            ये आंखें तुझको सदियों से
            जरा सा पास आ जाओ
            बसा लूँ अपनी धड़कन में l

प्रेम घन हो कर घनेरे
छा रहे मन - प्रांगन में
घटा घनघोर बरसेंगी प्रिये
अबकी ये सावन में !

             चाँदनी हो या अमा हो
             जप किया तेरे नाम का
             प्रेम अब पूजा को पहुँचा
             तनमन के अर्पण में !


2) "तुम्हारी दृष्टी " 

तुम्हारी दृष्टि
जैसे विद्युत् की कौंध
जो क्षणांश में
अपनी कनक-रेखा से
आकृष्ट कर
मुग्ध कर जाती ...
तुम्हारी दृष्टि
जैसे भैरवी की कोई
ह्रदय-स्पर्शिनी तान
जो मन प्राणों को
उद्वेलित कर
प्रेम-कुसुम महका जाती
सोई पीड़ा जगा जाती
दृग-बिन्दु छलका जाती ... !!


3) " प्रेम की नगरी सुन्दर नगरी "

एक बलशाली राजा के
अमर्यादित आचरण ने
एक सरल, स्वाभिमानी
           और
विद्वान् ब्राहमण को
कौटिल्य बना दिया.
प्रतिशोध की ज्वाला से
       जन्म हुआ
   इतिहास के प्रथम
युगनिर्माता, युगपुरुष का.
   परिणाम क्या हुआ ?
  मगध सम्राट महानंद
से अपमानित होने के बाद
सीधे-साधे चरित्रवान ब्राह्मण
   विष्णुगुप्त (चाणक्य)
   ने मुरापुत्र चन्द्रगुप्त
     को शिष्य बनाया
दासीपुत्र, कुँवारी माँ का बेटा
          चन्द्रगुप्त ...
  राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ,
 कुशाग्र बुद्धि के अर्थशास्त्री
      के मार्गदर्शन में
  महानंद को पराजित कर
    मगध सम्राट बना
    अपने आचरण से
   महानंद स्वयं अपने
 और अपने साम्राज्य के
  विनाश का कारण बना
    चन्द्रगुप्त महान ने
       यूनानी सम्राट
   महाबलशाली सिकंदर
   तक को परास्त किया
   सेनापति सेल्युकस ने
    अपनी बेटी हेलेना से
    विवाह की प्रार्थना की
      अजेय अपराजेय
     सम्राट चन्द्रगुप्त ...
          बिम्बसार -
  चक्रवर्ती सम्राट अशोक -
    चन्द्रगुप्त का पोता ...
  आधा खून हिन्दुस्तानी
       आधा यूनानी ...
   ना जाने कितने युद्ध ...
   अनगिनत लाशें बिछीं
        खून हीं खून.
      अंत क्या हुआ ?
 अंततः सम्पूर्ण राजपाट,
       ऐश्वर्य छोड़कर
  बौद्ध धर्म स्वीकार कर
   संन्यासी हो गया.
  लड़ाईयां, प्रतिशोध,
 हिंसा, युद्ध की ज्वाला ...
    अंततः सब कुछ
जलाकर राख कर देती है ...
प्रेम की नगरी है सुन्दर नगरी .. !!


4) " यह पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा "

 यह निर्दोष सारंग
 सुधाकर,
शरद पूर्णिमा का ... ...
सबसे उज्ज्वल,
कहीं कोई दाग नहीं ...
शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा,
सौंदर्य का भी है प्रतीक ये
रूपसी यामिनी का
चमचमाते सितारों जड़ा,
गहरा नीला आँचल
        और
उस पर थिरकता
बड़ा सा चमकता
पूर्ण चन्द्र ....
अमृत वर्षा करता हुआ
पूर्ण चंद्र ...
पूर्ण मन ... !!


5) " मैं सरिता हूँ "

मैं सरिता हूँ
सतत प्रवाहमयी
प्रवाहिनी
गति हीं मेरा जीवन है
इसलिए शिप्रा
हाँ तरंगिणी हूँ
बहती ...
अनवरत
निर्झरिणी हूँ
मेरे जन्म के साथी
बर्फ़ानी शिलाखण्ड
वनस्पतियाँ, अखुए,
पेड़-पौधे
मेरे हाथों को,
मेरे आँचल को
पकड़-थाम
रोकते हैं मुझे
पर मैं कहाँ रुकने वाली
मेरी कृष-काया
और भी उत्साह
और उमंग से
बहती जाती है
आगे ... और आगे ...
मैं सारंगा, प्रवाहिनी
चलती जाऊँगी
अपने प्रियतम
साँवरे सागर से मिलकर
उसी में लीन होने .... !!


6) " सूर्य उपासना "

हे सूर्यदेव !
आप अनंत आकाश की
अपनी अनवरत यात्रा में
अनेकानेक पीढ़ियों को
जन्म लेते और ...
नष्ट होते देखते हैं ...
समय चक्र को
गति प्रदान करते हैं ...
मानवता के हित में
चमकते रहते हैं ...
हे दैदीप्यमान सूर्य !
आपसे निरंतर
सम्पूर्ण सृष्टी को
जीवनदायिनी ऊर्जा
प्राप्त होती है
आप हैं
तो यह
समस्त
धारित्री है .... !!


7) " मैं हूँ ना पगली "

जब कभी भी
हार जाती हूँ ,
थक जाती हूँ ,
सहम जाती हूँ .
घबरा जाती हूँ ..
इस दुनिया की
विभीषिकाओं से
टूटने लग जाती हूँ
उस वक़्त
तुम्हारे ये शब्द
सब ठीक हो जाएगा ..
" मैं हूँ ना " पगली
मुझे बाहर निकाल लेता है
तमाम दुश्चिंताओं से
पूर्णरूपेण निरापद
महसूस करती हूँ
तुम्हारे स्नेह वृक्ष
के तले स्वयं को
तुम्हारे ये शब्द ...
संजीवनी की तरह
मुझे नई उर्जा
नई स्फूर्ति से
परिपूरित कर देते हैं
और तब
मुझे खुश देखकर
तुम्हारा हौले से मुस्कुराना ..
जैसे छिटक गयी हो
शुभ्र शीतल चांदनी
खिल उठी हो प्राण-बेला
बह चली मधुर निर्झरणी ... !!


8) " यक्ष प्रश्न "

“यत्र नार्यस्तु पूजयते,
रमन्ते तत्र देवता”
आदि काल से
इस तरह का
चिंतन रखने वाली
भारतीय सभ्यता का
कौन सा है यह दौर ?
कभी जिन
संस्कारों के कारण
भारतीय संस्कृति को
अद्वितीय माना गया
क्या आवश्यकता नहीं आज
उसी प्यारे भारतीय समाज
को आत्मचिंतन की ?
संस्कार व संस्कृति
के नाम पर
क्या आज सिर्फ एक
मिथ्या-भ्रम मात्र
बाकी रह नहीं गया है ?
बेटी को दुर्गा ,
लक्ष्मी ,सरस्वती की
उपमा से नवाजने वाली
संस्कृति कैसे ऐसी
हृदयहीन ,क्रूर
हो गयी कि
उसने कन्याओं को
संसार में आने से पहले हीं
क़त्ल करना शुरू कर दिया
अजन्मी कन्याओं को
दी जा रही
आखिर किस जुर्म की
सजा है ये  ?
फिर भी अगर
संसार में आ गयी तो
घर से लेकर बाहर तक
कुचली गयी
एक तरफ जहां
भारतीय संस्कृति में
नारी को सदा
मिला ऊंचा स्थान
नारी को मर्यादा के
क्षेत्र में भी
पुरूषों से अधिक श्रेष्ठ
माना गया तथा
स्त्री और श्री में
कोई भेद नहीं किया गया
वहीं उसी नारी के साथ
हिंसक, अमानुषिक व्यवहार !
कैसा विरोधाभास ...?
क्या करे स्त्री ...?
जुल्मों को अपना
भाग्य स्वीकार कर
ईश्वर से यही प्रार्थना....
कि -
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो .... ?


9) " मैं जाग रही प्रिये "

कृष्णपक्ष की,
भयप्रद विभावरी
चहुँओर निःस्तब्ध ..
घनघोर ध्वान्त !
सभी विटप, तरु
सो रहे गहन
निद्रा में लीन ..
बेसुध विश्रांत !
मैं जाग रही प्रिये
यादों के संग,
कुछ संस्मरण,
करे चित्त विभ्रांत ... !!


10) " धीर समीर का क्रोध "

क्रुद्ध बलशाली समीर ने
जल भरे
शरारती बादलों को ...
रूई की तरह धुनकर
समूचे आसमान पर
छितरा दिया है ..
यूँ तो ,
समीर की प्रकृति हीं
धीर-गंभीर और शांत है,
मंदस्मित और मंद-चाल ...
पर जब,
क्रोध आ जाये
फिर तो
इसकी हुंकार भरी
गर्ज़ना से
कौन ना
भयभीत हो जाये ... !!

- कंचन पाठक.