शशि धनगर की कविताएं

शशि धनगर सिर्फ कविताएं नहीं लिखती हैं, अपनी कविताओं में हमारे, आपके, हम सबके मन कि बात लिखती हैं। उनकी कविताओं में आशा है, निराशा है, जिरह है, जिंदगी है। शशि कि कविताओ में भावनाओं कि गूंज है, मन कि अभिव्य्क्ति है, संवेदना है और एक नवीनता जिसे हर कोई नहीं बुन सकता है। उनका स्त्री मन सिर्फ विमर्श को जाहिर नहीं करता बल्कि विद्रोह को भी उद्देलित करता जान पड़ता है। आप भी पढ़िए शशि कि कुछ कविताएं ...
 
1 - धन्य है तुम स्त्री हो
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धन्य हो जो तुम स्त्री हो,
वरना कहाँ सरल है इस जग में इंसा भी बन के रह पाना !
तुम जो सही-गलत सब को सहती,
ऊंच-नीच कुछ भी न कहती !
अपनों के लिए भी रही परायी,
दूजे तो दूजे ही थे ,
वो फिर कैसे अपनाते,
कर्त्तव्य तो तुम पर लाद दिए,
पर अधिकार वो कैसे दे पाते !
घर की इज्ज़त भी तुम थी,
शान भी तुमसे ,आन भी तुमसे,
नीव का भार तो तुम पर था,
छत वो पर कैसे दे पाते !
माँ , पत्नी और बेटी बन के पल-पल दिया सहारा तुमने,
जब बारी आयी लेने की,तो क्यों कुछ न किया गंवारा तुमने !
जब आन पड़ी जरुरत इस जग को,
खुद तुम ही आगे आयी हो,
ढेर सा प्यार इस दिल में लेकर ,
मजबूती भी साथ में लायी हो,
सर्वस्व न्योछावर करने को,
विश्व पटल पर छाई हो !
अब तुमसे है उम्मीद वफ़ा की,
जो अब जरुरत है इस दफा की !
हर क्षेत्र में उन ही गुणों की ,
जिसने तुम्हें कमजोर बनाया,
बचा लो अब इस धरा को,
प्यार, विश्वास में ही अब सब समाया !
क्योंकि, धन्य हो जो तुम स्त्री हो,
वरना कहाँ सरल है इस जग में इंसा भी बन के रह पाना !!


2 - मेरा तो सब तेरा है
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मेरा तो सब तेरा ही है,
तेरा भी तो अपना मान सकूँ,
और नहीं कुछ भी चाहूँ,
इंसा हूँ मैं भी बस एक,
इतना तो भ्रम पाल सकूँ !
संकल्प भी हूँ, और शक्ति भी,
प्यार भी हूँ और भक्ति भी,
कब की समर्पित हो चुकी मैं,
तेरा भी तो अर्पण जान सकूँ !
बस इतनी सीमा तो रखो,
मैं तो तुम तक पहुँच सकूँ,
सफ़र में साथ दो या न दो,
पर इतना विश्वास तो देना,
मंजिल पर जाके रुक तो सकूँ !
सही-ग़लत की परिभाषाओं में,
मन तो कब का मार दिया,
दस्तक दो अब दिल पर मेरे,
तन तो कब का वार दिया !
मन दर्पण में आकर देखो,
खाली हाथ नहीं जाओगे,
कितनी भी चाहे दूर सहर हो,
साथ हमेशा तुम पाओगे !


3 - राह में जब हो
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राह में जब हो तो,
ज़िंदगी सपने दिखाती है !
कदम दर कदम
सपने देखने की आदत लगाती है !
हकीक़त से रूबरू होते नहीं हैं हम,
ज़िंदगी झटके से लाकर के धरातल पे गिराती है !
अश्कों के समंदर में जीना होता जब दुश्वार,
समझ जब आने लगता है ये यथार्थ का संसार,
जो जब जैसा मिला कर लिया स्वीकार ,
तो,
ज़िंदगी फिर से एक बार करवट बदलती है !
आओ मिल के चलें मंजिल तलक,ये बात कहती है !
पर फिर से,
वक़्त के उस बवंडर में जाने की हिम्मत नहीं होती
वो दरिया पार करने की तो ज़हमत नहीं होती !
और बस
यूं ही ये ज़िंदगी चलती रहती है !
कभी ये तो कभी वो,
वही अफ़साने कहती है !


4 - पता नहीं क्यों
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पता नहीं क्यों,
हर जगह मृगतृष्णा नज़र आती थी मुझे,
कहीं नहीं था पानी,
जो जगह-जगह नज़र आता था मुझे!
न धूप थी न बारिस,
पर पता नहीं कैसे दिखे इन्द्रधनुषी रंग,
शायद ये ख्याल था मेरे मन का,
जो हर अनजान जगह ले जाता था मुझे,
तो फिर क्यों दोष दूँ , मैं धूप और बारिस को,
खता है जिसकी, तो क्यों न सजा भी मिले उसी को !!

5 - लहरें आती रहीं
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लहरें आतीं रहीं टकराती रहीं
मैं भी पत्थर थी मुझपे हुआ न असर
मन मेरे मान जा मैं तेरा क्या करू ?
छाप तुझपे पड़ी और पड़ती रही !
जुर्म तूने किया मैं मरती रही,
सांझ है ढल चुकी शमा रोशन नहीं
पर मैं मोम जैसी पिघलती रही !
राह देखी बहुत कश्ती के लिए
दूर थी वो बहुत सो बहती गयी !
वक़्त आया, ठहरा और चला भी गया,
गुजरना था जिस पर गुजरती रही !!


6 -जिंदगी कौन हो तुम
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जिन्दगी कौन हो तुम,
पल पल छलती
पल पल रूकती !
सांसें भी जब इनकार करने लगें
तन्हाईयों का साथ गंवारा न करें,
तो फिर से नए तानों- बानों को बुनने लग जाती हो !
सपने और सच में,
संघर्ष को चुनने लग जाती हो !
दुनियावी रस्म -रिवाजों से परे हटके
नए रास्ते तुम ही बनाती हो !
पतझड़ से माझी खीचकर किनारे तक लाती हो !
जब साथ मैं भी बहने की कोशिश करूं
तो फिर से हवा के थपेड़ों में फसाती हो !
कभी तो पास आओ,
बैठो, और मुझे भी बताओ,
अक्सर ये खेल क्यों रचाती हो !!

7 - प्रेम के ढाई आखर
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प्रेम के ढाई आखर
जाने कितने दिलों को धड़काते हैं !
कभी ऐसे तो कभी वैसे
हर एक की कहानी बन जाते हैं !

हौसला होता नहीं पल भर का
पूरी उम्र की कहानी गढ़ जाते हैं !
आंधियां चलती हैं जब ज़माने की
सपने तो छोडो दरख़्त भी उड़ जाते हैं !


दिल जान निकाल के क्यों न रख दो
वादे तो किस्से-कहानी बन जाते हैं !
एक पल और लाखों अधूरे अरमान
जिन्दगी तो छोड़ो रूह को भी तड़पाते हैं !


8 - चक्रवयूह
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सपनों के चक्रव्यूह मैं
आ के फँस गयी
निकलना बाहर आता नहीं
आसान भी नहीं
क्योंकि मैंने भी तो
माँ की कोख मैं
दुनियां का बवंडर नहीं देखा !
कोशिश की थी मैंने भी
लेकिन सच के पहिये ने
धराशायी कर दिया मुझे !
चक्रव्यूह है तो
और कोई चारा भी नहीं
या तो तोड़ना होगा इसे
या खतम होना होगा मुझे !
कृष्ण न तब आए थे
न अब आएंगे
अपने संघर्ष हैं
खुद ही पार होना होगा मुझे !


9 - मैंने कब मना किया
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मैंने कब मना किया
आओ और छलो जी चाहे जितना
पर इतना तो तय करो
कब और कितना..?
पैमाना कोई तो तय करना होगा तुम्हें
कभी तो सच बयान करना होगा तुम्हें !
कब तक यूं ही जियोगे
झूठी रस्मों के सहारे
कभी तो चाहिए होगा तुम्हें भी
मन का संबल अपना !
क्या महसूस नहीं किया कभी
कोई तो हो केवल अपना  
देखा होगा झूठा ही सही
पर तुमने भी तो कोई सपना !
अब सब तुम पर ही है
मैंने किया जो कर सकती थी
चाहो तो भटको इन रवायतों में
चाहे संवार लो जीवन अपना !


1 0 - मेरे पापा
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मेरे पापा जान हैं मेरी
वो तो बस पहचान हैं मेरी !
सही–गलत में कुछ न देखूं
दुनियांवी रस्में मैं न परखूँ
वो हैं तो है आन हैं मेरी !
शतायु हों वो ये अभिलाषा
और नहीं अब कोई आशा
अब बस ये अरमान है मेरी !
मैं सिकंदर इस दुनियां की
सुनूँ न मैं कुछ इसकी-उसकी
क्योंकि वो अभिमान हैं मेरी !
थोडा सा उनको अपनालूँ
कुछ बन जाउं उनके जैसी
तो रह जाएगी शान भी मेरी
सारे जहाँ से झगड़ा उनका 
पलकों पे है मुझको रखा
उनके कारण ही तो मैंने
दुःख का अब तक स्वाद न चखा
उनको दे पाउँ कुछ तो खुशियाँ
अब यही बस बान है मेरी !